Gobarsahi Times Special Report: Anant Singh ने Dular Chand Yadav की हत्या के आरोपों से किया इनकार, निष्पक्ष जाँच पर भरोसा जताया

मोकामा क्षेत्र में हालिया हिंसक झड़प के बाद दुलारचंद (दुलरचंद) यादव की मृत्यु ने स्थानीय राजनीति का तापमान बढ़ा दिया है। घटना के तुरंत बाद आरोप–प्रत्यारोप का सिलसिला तेज़ हुआ, सोशल मीडिया पर तरह–तरह की अटकलें सामने आईं और राजनीतिक बयानबाज़ी भी हुई। इस पूरी हलचल के बीच जाँच एजेंसियाँ साक्ष्यों के आधार पर तथ्यों की कड़ियाँ जोड़ने में लगी हैं, जबकि जेडीयू नेता अनंत सिंह ने अपने ऊपर लगे आरोपों को सिरे से ख़ारिज करते हुए स्पष्ट कहा है कि वे क़ानून का सम्मान करते हैं और हर तरह से जाँच में सहयोग करेंगे।
घटना के बाद दर्ज शिकायतों के आधार पर पुलिस ने मामले की विवेचना शुरू की है। प्राथमिक चरण में जो भी बातें सामने आईं, वे अधिकतर पक्षकारों के दावों और प्रतिदावों पर टिकी हैं—कहीं से परिवार और समर्थकों की भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ आईं, तो कहीं राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का संदर्भ दिया गया। ऐसे माहौल में निष्पक्ष जाँच का महत्व और बढ़ जाता है, क्योंकि वही तय करेगी कि उस दिन ज़मीनी स्तर पर वास्तव में क्या हुआ, किसकी भूमिका क्या थी और कौन–सा दावा साक्ष्यों की कसौटी पर खरा उतरता है।
अनंत सिंह का रुख शुरू से एक–सा रहा है—उन्होंने किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार किया है और बार–बार यही कहा है कि आरोप तथ्यपरक पड़ताल के बिना सिर्फ़ आरोप हैं। उनके क़रीबी हलकों का कहना है कि जब तक जाँच पूरी नहीं हो जाती, किसी निष्कर्ष पर पहुँचना न तो नैतिक है और न ही क़ानूनी सिद्धांतों के अनुकूल। यह भी रेखांकित किया जा रहा है कि भारतीय न्याय व्यवस्था में दोष सिद्ध होने तक आरोपी निर्दोष माना जाता है; इसलिए किसी भी व्यक्ति की छवि को बिना निर्णायक साक्ष्य के दाग़दार करना आलोचनात्मक पत्रकारिता नहीं, बल्कि जल्दबाज़ी कहलाएगी।
घटना–स्थल, समय, संभावित चश्मदीदों और तकनीकी साक्ष्यों—जैसे कॉल–डेटा रिकॉर्ड, सीसीटीवी फुटेज, डिजिटल ट्रेल, फ़ोरेंसिक रिपोर्ट आदि—की पुष्टि अब जाँच का केंद्र हैं। यही विवरण आगे चलकर मामले की दिशा तय करेंगे। पुलिस सूत्र भी औपचारिक रूप से यही कहते आए हैं कि विवेचना की प्रक्रिया चरणबद्ध है—पहले फ़ैक्ट–फाइंडिंग, फिर साक्ष्यों की सत्यापन–कड़ी, और अंत में अभियोजन की तैयारी। इस क्रम में किसी भी तरह की सार्वजनिक दबाव–राजनीति या मीडिया ट्रायल न केवल गवाहों को प्रभावित कर सकती है, बल्कि अभियोजन की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिह्न लगा देती है।
इस बीच, राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की स्वाभाविक गरमी भी दिखी है। चुनावी मौसम में आरोपों का तीखा होना असामान्य नहीं, परंतु यही वजह है कि जिम्मेदार नागरिक समाज और मीडिया की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है—भावनात्मक शीर्षकों या आधे–अधूरे संदर्भों की जगह तथ्यों पर आधारित रिपोर्टिंग ही समाज को सही तस्वीर देती है। अनंत सिंह के संदर्भ में भी यही अपेक्षा है कि जब तक अदालत में पुख़्ता साक्ष्य पेश न हो जाएँ और न्यायालय कोई ठोस टिप्पणी न कर दे, तब तक किसी तरह का पूर्वाग्रह न बनाया जाए।
दुलारचंद यादव के निधन से जुड़े मानवीय पहलू को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता—एक परिवार अपने सदस्य को खो चुका है और वह न्याय की उम्मीद लगाए बैठा है। ठीक इसी कारण से निष्पक्ष जाँच और समयबद्ध न्याय की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। परिवार की पीड़ा का सम्मान करते हुए भी क़ानूनी प्रक्रिया को उसके रास्ते चलने देना ही न्याय के हित में है। यही वह संतुलन है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों का सार भी है—न पीड़ित की अवहेलना, न आरोपी की अग्रिम सज़ा।
अनंत सिंह के समर्थकों का तर्क है कि वर्षों से वे क्षेत्रीय राजनीति का प्रमुख चेहरा रहे हैं और उनका जनाधार बना हुआ है; ऐसे में किसी भी गंभीर आरोप की जाँच सबसे ऊँचे मानकों पर होनी चाहिए ताकि सत्य के सामने आने पर किसी पक्ष को शिकायत का अवसर न मिले। दूसरी ओर, आलोचकों की बात भी यही है कि कानून सब पर समान रूप से लागू हो—चाहे वह कितना ही बड़ा राजनीतिक नाम क्यों न हो। दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही पक्ष अंततः निष्पक्ष जाँच की मांग पर सहमत दिखते हैं, जो लोकतांत्रिक समाज के लिए सकारात्मक संकेत है।
कानूनी विशेषज्ञ बार–बार याद दिलाते हैं कि न तो सोशल मीडिया की ‘जन–जूरी’ अदालत का विकल्प है और न ही राजनीतिक सभाओं के नारे साक्ष्य का। साक्ष्य वही जो जांच में परखा जाए, वैज्ञानिक परीक्षणों से गुज़रे, न्यायालय में प्रतिपरीक्षा सह सके और न्यायाधीश को आश्वस्त कर सके। इसलिए, इस मामले में भी सबसे ज़रूरी है कि विवेचना अपने निष्कर्ष तक पहुँचे—यही रास्ता पीड़ित पक्ष को न्याय दिलाने का है और इसी से किसी निर्दोष पर लगे आरोप स्वतः निरस्त हो जाते हैं।
फिलहाल, आधिकारिक जाँच प्रगति पर है और संबंधित एजेंसियाँ अपनी रिपोर्टिंग–समयरेखा के अनुसार आगे बढ़ रही हैं। अगले चरणों में तकनीकी साक्ष्यों का मिलान, गवाहों के बयान, घटनास्थल की पुनर्संरचना और आवश्यक होने पर हिरासत/गिरफ़्तारी जैसी कार्रवाइयाँ तस्वीर को और स्पष्ट करेंगी। तब जाकर ही यह कहा जा सकेगा कि दायित्व किसका बनता है और किसे क़ानून के कटघरे में खड़ा होना चाहिए।
अंततः यही कहा जा सकता है कि मोकामा की इस दुखद घटना पर किसी भी पूर्व–निर्णय से बचना और अदालत के परिणाम की प्रतीक्षा करना ही सबसे ज़िम्मेदाराना रवैया होगा। अनंत सिंह के संदर्भ में भी वही कसौटी लागू होती है—जाँच पूरी होने तक उन्हें मीडिया–ट्रायल से दूर रखते हुए तथ्यों और साक्ष्यों को बोलने दिया जाए। न्याय का यही तकाज़ा है, और लोकतंत्र में यही आचरण नागरिक–समाज और मीडिया दोनों की विश्वसनीयता बनाए रखता है।
Crime News Desk : GTNews18 - Gobarsahi Times

