रणनीतिकार और किंगमेकर से ‘तीसरी ताक़त’ तक: बिहार में Prashant Kishore और जन सुराज क्यों रहे बेअसर?

चुनाव अभियानों के मास्टरमाइंड माने जाने वाले प्रशांत किशोर (PK) ने बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी जन सुराज के साथ लंबी पदयात्राएँ, गाँव-गाँव संवाद और मुद्दा-आधारित संदेश चलाया। मेहनत दिखी, चर्चा भी बनी—फिर भी सीटों पर निर्णायक पकड़ नहीं बन सकी। आखिर चूक कहाँ हुई?
1) संदेश तो था, पर बूथ तक “मशीन” नहीं पहुँची
PK का नैरेटिव साफ था—गवर्नेंस, पारदर्शिता, परिवार-वाद के ख़िलाफ़ स्टैंड और स्थानीय समस्याओं का हल। लेकिन संदेश को वोट में बदलने के लिए बूथ-स्तर की मशीनरी चाहिए—पन्ना प्रमुख, स्थायी काडर, समय पर मतदाता पहुँच, और दिन-ए-मतदान की सूक्ष्म लॉजिस्टिक्स। पुराने गठबंधनों की वर्षों से खड़ी यह मशीनरी जहाँ मौजूद थी, जन सुराज वहाँ पीछे रह गई।
2) 243 सीटों पर “ऑल-आउट”—संसाधन बिखर गए
हर सीट पर उतरना साहसिक निर्णय था, पर नए संगठन के लिए फोकस्ड टार्गेटिंग ज़्यादा प्रभावी रहती। चुनाव प्रबंधन—उम्मीदवार चयन, मीडिया, परिवहन, प्रशिक्षण, GOTV—सब जगह डायल्यूशन हुआ। परिणामतः जहाँ 8-10 “विन्नेबल” सीटों पर ताक़त समेटनी थी, वहाँ ऊर्जा पूरे राज्य में बंट गई।
3) उम्मीदवार-प्रबंधन और काडर स्थिरता की कमी
कई जगहों पर उम्मीदवार बदलाव/वापसी जैसी ख़बरों ने मोराल और भरोसा कमजोर किया। नए काडर का जोश था, पर दीर्घकालिक अनुशासन और “मैं क्यों जीतूँगा” वाली उम्मीदवार-स्तरीय स्ट्रैटेजी में स्केल नहीं बन पाया।
4) “B-टीम/वोट-कटवा” जैसा टैग—धुंधला ब्रांड
बड़े खेमे अक्सर नई पार्टी पर “किसके फ़ायदे में काम करती है” जैसा प्रश्न खड़ा करते हैं। यह परसेप्शन वॉर अगर समय रहते न संभाला जाए तो ब्रांड “असली विकल्प” की पहचान हासिल नहीं कर पाता। जन सुराज को अपने स्वतंत्र, निर्णायक और किसी खेमे से असंबद्ध विकल्प की छवि और धारदार बनानी थी।
5) नेता का खुद मैदान में न उतरना
PK ने संगठनात्मक फोकस के लिए व्यक्तिगत चुनाव न लड़ने का रास्ता चुना। रणनीतिक रूप से यह उचित हो सकता है, पर नई पार्टी के लिए चेहरा सीधे मुकाबले में दिखे—यह प्रतीकात्मक ऊर्जा और मीडिया-फ़ोकस दोनों दिलाता। यह ऊर्जा अनुपस्थित रही तो स्विंग वोट आकर्षित करने का अवसर घट गया।
6) समाजशास्त्रीय गठजोड़ की कमी
बिहार की राजनीति सीट-दर-सीट सामाजिक समीकरण पर चलती है—जातीय/आर्थिक समूह, स्थानीय नेतृत्व और पंचायत-स्तरीय प्रभावकों की भूमिका बड़ी है। “कास्ट-न्यूट्रल गवर्नेंस” संदेश सराहनीय है, मगर मैदान में स्थायी सामाजिक एंकर के बिना FPTP प्रणाली में फैला हुआ वोट सीट में नहीं बदलता।
7) समय और धैर्य—ब्रांड बिल्डिंग अधूरी
पार्टी निर्माण, संरचनात्मक कमेटियाँ, प्रशिक्षण, आईटी-डेस्क से लेकर बूथ-वार निगरानी तक—यह सब कई चुनाव चक्र लेता है। जन सुराज ने तेज़ी से शुरुआत की, पर इन्फ्रास्ट्रक्चर-डेप्थ उतनी तेज़ी से नहीं बन पाई कि पहली बड़ी परीक्षा में निर्णायक परिणाम दिखें।
8) भीड़ भरा विकल्प-स्पेस
मैदान में पहले से मौजूद छोटे-बड़े दलों/उम्मीदवारों के बीच नए ब्रांड को अलग पहचान बनानी पड़ती है। समान मुद्दों पर बोलने वाले कई विकल्प हों, तो वोट-स्लाइसिंग हो जाती है और “क्रिटिकल मास” किसी एक सीट पर जुट नहीं पाता।
असर क्यों नहीं बना—संक्षिप्त निष्कर्ष
संगठनात्मक गहराई और बूथ-मैनेजमेंट पुराने गठबंधनों की तुलना में कमज़ोर रहे।
फोकस्ड सीट रणनीति की जगह राज्यव्यापी फैलाव से संसाधन बँट गए।
उम्मीदवार स्थिरता/काडर अनुशासन में दरारें दिखीं।
ब्रांड-क्लैरिटी (B-टीम/कटवा नैरेटिव का जवाब) पर्याप्त धार से नहीं आई।
नेता का खुद न लड़ना—उत्साह और मीडिया-मोमेंटम का बड़ा प्रतीक छूट गया।
सामाजिक गठजोड़ और स्थानीय प्रभावकों से टिकाऊ रिश्ते बनाने में समय लगेगा।
आगे का रास्ता: क्या करे जन सुराज?
सीट-फोकस्ड रोडमैप: 15–20 सीटों पर बहुवर्षीय “एडॉप्शन मॉडल”—स्थानीय इश्यू, भरोसेमंद चेहरे, दीर्घकालिक उपस्थितियाँ।
काडर-डेन्सिटी: प्रशिक्षण, डेटा-आधारित माइक्रो-टार्गेटिंग और बूथ-स्तरीय स्वामित्व—“मेरे बूथ की ज़िम्मेदारी मेरी।”
सोशल-कोएलिशन बिल्डिंग: मुद्दा-आधारित गठजोड़, पंचायत-स्तर के प्रभावकों/समूहों से संस्थागत समझौते।
ब्रांड-क्लैरिटी: स्पष्ट वैचारिक/नीतिगत दस्तावेज़, काम-केस-स्टडी, और विरोधियों के नैरेटिव का त्वरित कंट्रॉल-रूम।
चेहरे की रणनीति: भविष्य में सीधे चुनावी मुकाबले पर पुनर्विचार—कम से कम चुनी हुई सीटों पर शीर्ष चेहरों का मैदान में उतरना।
अंतिम पंक्ति
प्रशांत किशोर और जन सुराज ने मेहनत और मुद्दों से चर्चा जरूर बनायी, पर पहली बड़ी परीक्षा में जीत का गणित केवल संदेश से नहीं—संगठन, सामाजिक एंकर और बूथ-ऑप्स से निकलता है। यही तीन स्तंभ मज़बूत हुए बिना, फैला हुआ वोट सीटों में कन्वर्ट नहीं होगा। अगले चुनावी चक्र तक अगर पार्टी इन मोर्चों पर लगातार निवेश करती है, तो आज का “शोर ज़्यादा, असर कम” कल निर्णायक ताक़त में बदला जा सकता है।
Election News Desk : Gobarsahi Times | GTNews18



