
आज के दिन, 2 अक्टूबर, भारत अपने दो महान सपूतों—महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री—को श्रद्धा से याद करता है। शास्त्रीजी का जीवन इस बात का साक्षात उदाहरण है कि सीमित संसाधनों और साधारण पृष्ठभूमि से उठकर भी देश की बुनियाद को मजबूत किया जा सकता है। उनकी सादगी, निष्ठा और दूरदृष्टि आज भी भारतीय जनमानस के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
बाल्यकाल और शिक्षा
लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय (अब पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर) में हुआ। पिता की प्रारंभिक मृत्यु और आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने शिक्षा के प्रति दृढ़ संकल्प बनाए रखा। वाराणसी में पढ़ाई के दौरान उन्हें “शास्त्री” उपाधि मिली—जो उनके विद्या और विनम्रता दोनों का प्रतीक बनी। किशोरावस्था से ही वे राष्ट्रसेवा और आत्मअनुशासन के संस्कारों से गहरे प्रभावित थे।
स्वतंत्रता संग्राम की राह
शास्त्रीजी का राजनीतिक दीक्षा-काल असहयोग, नमक सत्याग्रह और व्यक्तिगत सत्याग्रह जैसे आंदोलनों से जुड़ा रहा। वे बार-बार जेल गए, पर हर बार और अधिक दृढ़ होकर लौटे। उनके लिए राजनीति सत्ता का साधन नहीं, बल्कि सेवा और चरित्र-निर्माण का पथ था। यही कारण है कि उन्होंने संगठन में रहकर कार्य किया, भीड़ में रहते हुए भी प्रचार से दूर रहे और कर्म को वाणी से अधिक महत्व दिया।
प्रशासन में शुचिता और दक्षता
स्वतंत्रता के बाद शास्त्रीजी ने उत्तर प्रदेश के परिवहन और गृह विभाग से लेकर केंद्र में रेल, वाणिज्य एवं उद्योग, और गृह मंत्रालय तक महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ निभाईं। रेल मंत्री के तौर पर दुर्घटनाओं की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर इस्तीफा देना उनकी जवाबदेही की अनूठी मिसाल है। वे मानते थे कि अधिकार के साथ उत्तरदायित्व और संवेदनशीलता भी अनिवार्य है। नीति-निर्माण में उनका जोर सरल समाधान, मानवीय दृष्टि और त्वरित क्रियान्वयन पर रहता था।
प्रधानमंत्री के रूप में दृढ़ नेतृत्व
1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद जब शास्त्रीजी ने प्रधानमंत्री पद संभाला, तब देश खाद्य संकट, आर्थिक चुनौतियों और सीमाई तनावों से जूझ रहा था। उन्होंने एक ओर हरित क्रांति की नींव को मजबूती दी, तो दूसरी ओर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर स्पष्ट और साहसी दृष्टिकोण अपनाया। 1965 के युद्ध के समय उनका दिया नारा—“जय जवान, जय किसान”—सिर्फ उत्साहवर्धक शब्द नहीं, बल्कि भारत की विकास-यात्रा के दो स्तंभों का घोष था: सुरक्षा और खाद्य-स्वावलंबन।
“जय जवान, जय किसान”: नारे से नीति तक
शास्त्रीजी ने समझा कि सेना का मनोबल और खेत का उत्पादन—दोनों ही राष्ट्र की रीढ़ हैं। एक तरफ उन्होंने सशस्त्र बलों को पूरा समर्थन दिया, तो दूसरी तरफ किसानों को उन्नत बीज, सिंचाई, न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी नीतिगत पहल से सक्षम किया। उनके समय में भोजन की कमी से जूझते भारत ने आत्मविश्वास की राह पकड़ी—यह शास्त्रीजी की दूरदृष्टि का परिणाम था।
सादगी जो स्वयं संदेश बन गई
शास्त्रीजी का निजी जीवन एक आदर्श था। सरकारी रौब-दाब, विशेषाधिकारों और तड़क-भड़क से दूर, वे जनता के जीवन की कठिनाइयों को अपना समझते थे। परिवार में भी उसी मितव्ययिता और ईमानदारी का पालन करते रहे जिसकी अपेक्षा उन्होंने शासन-तंत्र से की। उनकी सादगी किसी दिखावे का साधन नहीं, बल्कि जीवन-मूल्य थी—यही वजह है कि वे “जन-नेता” कहलाए।
अंतरराष्ट्रीय दृष्टि और ताशकंद
विदेश नीति में उन्होंने शांतिपूर्ण समाधान और पारस्परिक सम्मान को प्राथमिकता दी। ताशकंद समझौते के लिए उनका प्रयास इसी सोच का प्रतिबिंब था। देशहित सर्वोपरि रहे, और वही उनकी अंतिम यात्रा का भी संकल्प बना। शास्त्रीजी का अचानक निधन राष्ट्र के लिए अपूरणीय क्षति थी, किंतु उनके विचार और आदर्श आज भी नीति और नैतिकता के मानदंड हैं।
निष्कर्ष: आज की पीढ़ी के लिए संदेश
लाल बहादुर शास्त्री हमें सिखाते हैं कि नेतृत्व का सार पद में नहीं, मूल्यों में निहित है; कि नारे केवल तब सार्थक होते हैं जब वे नीति और कर्म में उतरें; और कि राष्ट्र की प्रगति अनुशासन, परिश्रम और ईमानदारी की संयुक्त साधना से होती है। उनके जन्मदिन पर हम यह संकल्प लें कि “जय जवान, जय किसान” को नए युग में “ज्ञान, नवाचार और समावेशन” के साथ जोड़कर भारत को आत्मनिर्भर, सुरक्षित और समृद्ध बनाने में अपना योगदान देंगे।
शास्त्रीजी को विनम्र श्रद्धांजलि—आपकी सादगी, साहस और सेवा भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को निरंतर आलोकित करती रहे।